दार्शनिक दृष्टि - भाग -1 - समाज मे युवाओं पर भरोसे के हालात बिट्टू श्री दार्शनिक द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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दार्शनिक दृष्टि - भाग -1 - समाज मे युवाओं पर भरोसे के हालात

समाज मे युवाओं पर भरोसे के हालात

देखा ही है की, हर लड़का कितना भी ज्ञान प्राप्त करके सफलता को प्राप्त नहीं हो पाता। कितनी भी सावधानी बरतने के बाद भी वह सफल नहीं हो पाता। यहां तक की अत्यंत दुष्कर कार्य को अच्छे से संपूर्ण करने के बाद भी उसे उतना सम्मान नहीं मिल पाता।

ऐसा आखिर क्यों होता है!?
कहां समस्या आती है ?!

किसी भी व्यक्ति को अपनी सफ़लता से रोकने में उस व्यक्ति का स्वयं का अभिमानी अथवा क्रोधी स्वभाव उतना महत्व नहीं रखता।
यहां देखा गया है की उस उस लड़के के साथ हो रहा पारिवारिक बर्ताव, उस व्यक्ति पर किया जाने वाला अकारण अविश्वास, यह उस व्यक्ति को स्वयं की गलतियां ढूंढने पर मजबूर करता है। बार बार प्रतिदिन यह क्रिया होते रहने पर, हर परिस्थिती में वह व्यक्ति अपनी गलती ढूंढने लगता है। यह बात उस व्यक्ति का स्वयं पर से विश्वास कम कर देता है।
जब मां को अपने बेटे (छोटे/उभरते हुए नवयुवक) पर भरोसा होता है, तब उस बेटे को अपने पर खुद से ज्यादा भरोसा होता है। हर छोटी बात पर उसे मौका देना, उसकी बात को ध्यान में रखना उसके मत को समझना और उस पर सोच विचार करना... यह पारिवारिक समझ इसके चरित्र में अभिमान के बजाय आत्मविश्वास बढ़ाता है। अपनी बात करने की क्षमता और बात को स्पष्टता से रखने की काबिलियत बढ़ाता है। अन्य का अपमान के बजाय स्वयं का सम्मान कराना और अन्य का सम्मान करना सिखाता है। जैसा कि हाल ही के समय में देखे, अधिकांश परिस्थितियों में, जो व्यक्ति विनम्रता से और शांति से बर्ताव करता है उसे असमर्थ समझ लिया जाता है। जो चिल्लाता है, गुस्सा करता है, नौटंकियां करता है, उसे ही सबसे अधिक समझदार समझा जाता है। यही वास्तविकता है।

युवक के सम्मान और विश्वास पर बार बार ठेस लगने की वजह से वह खुद के अपमान का आदि हो जाता है। यह परिस्थिति युवक को सही और गलत / योग्य और अयोग्य की समझ को नष्ट कर देता है। जब यह हालात बनते है तो अन्य लोग उस युवक पे विश्वास नहीं करते। उसकी कार्य दक्षता पर प्रश्न चिन्ह लगाकर छोड़ देते है। युवक को उत्तर प्राप्त होने पर भी उसका स्वीकार नहीं होता क्योंकि वह अपमानित है।

वास्तव में कभी मजाक मस्ती में ही किया हुआ युवक का अपमान लोग सच मान लेते है। युवक मस्ती समझ कर उसके खिलाफ आवाज नहीं उठता, जो की बार बार उसके अपमान का कारण बनता है। समाज में बिजुर्गो, शिक्षको, परिवार के अन्य लोग का यह उत्तरदायित्व बनता है कि वे किसी व्यक्ति विशेष के सामर्थ्य और चरित्र पर मजाक न बनाए। यदि कोई बनाता है उसका विरोध कब और कैसे करना है यह भी शिखाए।

ऐसे में यदि कोई युवक अपने स्वमान तथा सामर्थ्य पर दाग लगने से बचाने के प्रयास में आवाज ऊंची करता है तो उसे अहंकारी, घमंडी, चरित्र हीन मान लिया जाता है।
किसी भी समाज के आगे बढ़ने के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण और आवश्यक हो जाता है की उनके युवक योग्य और अयोग्य का विवेक सीखे, स्वयं आत्मविश्वास से परिपूर्ण रहे और वह समाज के लोग नई पीढ़ी के युवकों की नई सोच को अपमानित करते रहने के बजाय उसे समझने और बिना कोई अपमान किए आवश्यकता के अनुसार सुधार कर उपयोग में लाए, उस पर चर्चा विचारणा करे। जो भी निर्णय लिया जाता है उसमे युवक को सामिल कर के परिस्थिति से अवगत कराना यह समाज और परिवार के बुजुर्गो के प्रमुख कर्तव्यों में से एक है।

- आचार्य जिज्ञासु चौहान
(बिट्टू श्री दार्शनिक)
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